रामगढ़, झारखंड। झारखंड के कई ऐसे देवी मंडप और मंदिर हैं, जहां पहले पशुओं की बलि देने की परंपरा थी। लेकिन कुछ भक्तों के प्रयास से अब उन देवी मंडपों और मंदिरों में पशुओं के बलि देने की परंपरा बंद हो गई और माता विशुद्ध वैष्णवी बन गईं।
प्रसिद्ध सिद्धपीठ रामगढ़ के रजरप्पा स्थित मां छिन्नमस्तिके मंदिर में आज भी पशुओं के बलि देने की परंपरा है, लेकिन वहां भी माता विशुद्ध वैष्णवी हैं। मंदिर के बाहर दूसरी ओर बकरे की बलि दी जाती है, लेकिन महाआरती के बाद माता को दोनों वक्त सुबह-शाम खीर का भोग चढ़ाया जाता है। हजारीबाग के सदर प्रखंड स्थित बानाहप्पा में लगभग 175 साल पहले से मां दुर्गा की पूजा होती है। यहां नवमी को बलि देने का रिवाज था। बानाहप्पा के बुजुर्ग कृष्ण वल्लभ सिंह बताते हैं कि पांच दशक पूर्व माता के अनन्य भक्त कुंवर नागेश्वर प्रसाद सिंह को देवी ने स्वप्न में बलिप्रथा बंद करने की बात कही। भक्त की आंखों से अश्रुधार फूट पड़े और वहां बलिप्रथा पर विराम लग गया। केरेडारी के कंडाबेर स्थित मां अष्टभुजी का इतिहास भी लगभग सवा सौ साल पुराना है।
मसोमात करमी देवी बताती हैं कि लगभग दो दशक पूर्व मंदिर के पुजारियों ने ग्रामीणों के साथ बैठक कर उन्हें समझाया कि माता जीवनदायिनी होती हैं। इसलिए बलि उचित नहीं है। तब से बलि देना बंद हो गया। करीब 225 साल पुराने इटखोरी टाल दुर्गा पूजा समिति में लगभग 45 वर्ष पूर्व बलिप्रथा रोक दी गई। पहले वहां भैंसे की बलि दी जाती थी। रामगढ़ के गोला में करीब 145 वर्ष पुराने बाबू दुर्गा मंदिर में पागल राघवानंद बाबा ने बलिप्रथा बंद कराने को लेकर अनशन कर दिया था। ग्रामीण नहीं माने, तो उन्होंने आत्मदाह करने की चेतावनी दे डाली। उसके बाद वहां बलिप्रथा पर विराम लग गया।