अभी हिंदू पंचाग के अनुसार पितृ पक्ष चल रहा है। मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष में पितर लोग अपने लोक से पृथ्वी वोक पर आते हैं। इस दौरान उनके सम्मान में तर्पण-श्राद्ध किया जाता है। सनातन सिंध परिवार पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष के अवसर पर कुछ ऐसी विभुतियों को आदर के साथ स्मरण कर रहा जिन्होंने अपने जीवन काल में सनातन धर्म व समाज की सेवा में उल्लेखनीय कार्य किये।
ऐसे महापुरूष हमेशा हम सबके के लिए प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे. ये सही मायने में समाज रत्न हैं जिनका नश्वर शरीर भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन ये अपने विराट व्यक्तित्त व कृतित्व से हमेशा समाज को आलोकित करते रहेंगे. उन्हें सनातन सिंधु परिवार की ओर से कोटि-कोटि नमन व भावभीनी श्रद्धांजलि।
कहा गया है जो सपूत होता है वह अपनी नई राह बनाता है। परंपरागत रास्ते पर चलना उसे पसंद नहीं। नई राह पर चलकर ही वह समाज को दिखाता है अपनी क्षमता और हासिल करता है मंजिल।
स्वर्णकार समाज के लिए एक ऐसे ही सपूत थे डॉ. सुरेंद्र प्रसाद वर्मा। अपने अंदाज के राही नई राह के। आजीवन समाज के लिए जिए। अपनी जिंदगी को देश और समाज के लिए ही होम कर दिया।
उनकी मेहनत, लगन और तपस्या का ही प्रतिफल है कि बिहार के जिस नालंदा में उन्होंने स्वर्णकार समाज के विकास की जो लौ जलाई थी वो आज झारखंड के जमशेदपुर में मशाल बनकर पथ प्रदर्शक का काम कर रही है।
उनके प्रेरणा पाकर स्वर्णकार समाज के लोग अपने विकास के लिए नित नए प्रयास कर रहे हैं। बिहार के नालंदा जिले के खुदागंज पंचायत के निवासी डॉ. सुरेंद्र प्रसाद वर्मा का जन्म 1917 में हुआ था।
चूंकि उन दिनों देश परतंत्र था और आजादी की लड़ाई के लिए भारतीय युवा अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने को संकल्पित रहते थे लिहाजा किशोरावस्था में सुरेंद्र वर्मा भी आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। साथ ही साथ समाजसेवा से भी खुद को जोड़े रखा।
समाज सेवा के प्रति उनकी लगन का ही कमाल था कि उन्होंने डॉक्टरी विधा को चुना। पटना से आयुर्वेदाचार्य की डिग्री हासिल की। बाद में होम्योपैथिक चिकित्सा की भी पढ़ाई पूरी की।
सुरेंद्र बाबू को आयुर्वेद और होम्योपैथ में महारथ हासिल थी।
उनके पास लाइलाज बीमारियों का रामबाण रहता था। जो बीमारी बड़े-बड़े शहरों के चिकित्सक ठीक नहीं कर पाते थे उसे वे अपने दो-चार पूडिय़ों से ठीक कर देते थे। सुरेंद्र बाबू सिर्फ डॉक्टरी से ही समाजसेवा नहीं करते थे।
स्वर्णकार समाज के लिए तो उन्होंने ताउम्र सक्रियता दिखाई। समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए वे हमेशा सक्रिय रहे। कुरीतियों से ताउम्र लड़ते रहे। युवाओं को रोजगार सृजन के लिए देश-दुनिया के किसी भी कोने में जाने के लिए प्रेरित करते रहे।
साथ ही साथ यह सीख देना भी नहीं भूलते थे कि प्रतिकूल स्थिति में भी सिद्धांत से डिगना नहीं चाहिए और समाज के विकास और एकजुटता के लिए कोई भी त्याग करने से परहेज नहीं करना चाहिए। सुरेंद्र बाबू जो कहते थे उसपर डटे रहते थे। सिद्धांत के वे इतने मजबूत थे कि उसकी मिसाल बड़ी-बड़ी हस्तियां देती थी।
आजादी की लड़ाई में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया लेकिन जब स्वतंत्रता सेनानियों के लिए सरकार पेंशन योजना लेकर आई तो सुरेंद्र बाबू ने यह कहते हुए पेंशन लेने से इंकार कर दिया कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में इसलिए हिस्सा नहीं लिया था कि स्वतंत्रता मिलने पर सरकार से फायदा लेंगे।
उन्होंने आजादी की लड़ाई में देशप्रेम की वजह से हिस्सा लिया था और देशप्रेम की कोई कीमत नहीं होती वह अमूल्य होता है। उसे किसी पेंशन या दूसरे राहत पैकेज से भरा नहीं जा सकता।
आज के भारत को सुरेंद्र बाबू जैसे विचारवान लोगों की आवश्यकता है. खुशी की बात यह कि उनका भरा पूरा परिवार देश के कई शहरों में उनके विचारों को आगे बढ़ाने की भरसक प्रयास कर रहा।
गया में कुछ लोग कौआ पाला है,100 रूपए लेकर खाना खिलवा रहा है, पहले तोता भविष्य बतलाता था, अब कौवा स्वर्ग पहुंचा रहा है ।