हिंदू पंचाग के अनुसार पितृ पक्ष का आज समापन हो रहा है। मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष में पितर लोग अपने लोक से पृथ्वी वोक पर आते हैं। इस दौरान उनके सम्मान में तर्पण-श्राद्ध किया जाता है।
सनातन सिंधु परिवार पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष के अवसर पर कुछ ऐसी दिव्यात्माओं को आदर के साथ स्मरण कर रहा जिन्होंने अपने जीवन काल में सनातन धर्म व समाज की सेवा में उल्लेखनीय कार्य किये।
ऐसे महापुरूष हमेशा हम सबके के लिए प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे. उनका नश्वर शरीर भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन ये अपने विराट व्यक्तित्त व कृतित्व से हमेशा समाज को आलोकित करते रहेंगे. उन्हें सनातन सिंधु परिवार की ओर से कोटि-कोटि नमन व भावभीनी श्रद्धांजलि।
मारवाड़ी समाज अपनी प्रखर व्यवसायिक बुद्धि, दानवीरता, शौर्य, साहस, समाज सेवा और धार्मिक अनुष्ठानों के लिये जाना जाता है। इसी मारवाड़ी समाज ने ऐसे कई समाज सेवक भी दिये हैं जिन्होंने अपनी व्यवसायिक ऊंचाईयों के साथ-साथ मानवीय प्रतिबद्धताओं को भी शिखर तक छुआ है।
इसी में एक नाम छबील दास जी अग्रवाल का है जिन्होंने समाज-धर्म सेवा के दीपक को कस्वाई चरित्रवाले झारखंड के पूर्वी सिंहभूम के मुसाबनी-घाटशिला इलाके में जलाया लेकिन उस सेवा रूपी दीपक की रौशनी से आज जमशेदपुर जैसा शहर भी प्रकाशवान है। आज छबीलदास जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वे उस दिशाज्ञान देनेवाली रौशनी की तरह हैं। उनके सिद्धांत व कर्म आज भी नई पीढ़ी को धर्म-सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।
छबीलदास जी अग्रवाल का जन्म 11 नवंबर 1936 को हरियाणा के हांसी में हुआ था। माता भूला देवी व पिता जगन्नाथ जी अग्रवाल के साथ हरियाणा से आकर छबीलदास जी ने मुसाबनी में अपना कारोबार आरंभ किया। वह साल था 1952। उन्होंने कारोबार को जीवन का ध्येय न मानकर जीने का एक जरिया भर माना। उनका मानना था कि बहुत किस्मत से मिले इस मानव जीवन को तभी साकार किया जा सकता है जब इंसान खुद को समाज व धर्म सेवा को समर्पित कर दे। छबीलदास जी ने ऐसा किया भी।
समाज व धर्म सेवा में उनका नाम व काम विख्यात है। समाज के काम में वे आजीवन सक्रिय रहे। कई मंदिरों समेत अनेक संस्थाओं को स्थापित करने या बढ़ाने में उन्होंने अथक प्ररिश्रम किया। जब वे मुसाबनी इलाके मेें आए थे, तब वह इलाका काफी पिछड़ा हुआ था। उन्होंने शिक्षा के विकास पर ध्यान दिया। उनका मानना था कि शिक्षा ही विकास का रास्ता खोल सकती है। इसलिए सरस्वती विद्या मंदिर व शिशु मंदिर की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। धर्म ध्वजा लहराने का संस्कार को उन्हें विरासत में मिला था।
इसीलिए कई मंदिरों के निर्माण या संचालन से लेकर धार्मिक आयोजनाों या तीर्थ यात्राओं को आयोजित कराने में आजीवन बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। वे मुसाबनी के विश्वनाथ मंदिर कमेटी से कई दशक तक जुड़े रहे और मार्गदर्शन करते रहे। मारवाड़ी समाज की एकता व विकास के लिए भी वे सदा तत्पर रहे। अग्रसेन भवन के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उनसे जो भी मिलता था, उनका अपना हुआ बिना नहीं रह पाता था। वे लोगों को मान सम्मान देना अपना नैतिक कर्तव्य मानते थे और लोग भी दिल से उनका आदर करते थे। विभिन्न संस्थाओं या संगठनों द्वारा उन्हें अपने कार्यक्रमोंं बुलाकर सम्मानित किया जाता था।
छबीलदास जी की धर्मपत्नी शांति देवी जी का भी उन्हें भरपूर सहयोग मिला। वे 26 दिसंबर 1956 को विवाह के बंधन में बंधे थे। उन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों को भी धर्म-समाज सेवा के वही संस्कार दिए जो उन्हें विरासत में मिले थे। उनके संस्कारों की पूंजी से उनके छह पुत्र व दो पुत्रियों की धार्मिक-सामाजिक जीवन यात्रा को संजीवनी मिल रही है।