डॉ हरेराम त्रिपाठी ‘चेतन ‘
सुघराई बा वस्तु में, अँकुरे जब लखि भाव ।
भाव—भाव में सुघरई, सुघर–सुघर तब चाव ।।
सुघर कहन के ढंग जब ,बोध सुघर उदात्त ।
मोल सुघर जब मनुज के ,सुघर-सुघर सभ तात।।
लोकरीति होखे सुघर , सुघर लोक---विश्वास ।
सुघर लोक के प्रकृति में ,सुघर साँसप्रति साँस।।
साफ सुघर अन्तर नयन, सुघर चेतना, चित्त।
शब्द सुघर, भाषा सुघर बने सुघर तब गीत ।।
तबे सुघर कविता बने ,मिलिजा मिथक,प्रतीक।
बिम्ब उकेरे चित्र जब ,सुघर रंग दे नीक ।।
सुघर भंगिमा से सजे ,सुघर छन्द के बन्ध।
सुघर कल्पना में बसे कवि के वाक्-सुगन्ध।।
(कवि मोराबादी, रांची के निवासी हैं)