हिंदी साहित्य में परिवर्तन

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आंचलिकता पर चर्चा 1


आज मैं “हिंदी कहानियों में आंचलिकता” पर विचार  करते हुए कुछ विशेष आंचलिक कहानियों या रचनाओं पर भी चर्चा शुरू करने की इच्छा रखता हूँ।  इसे आगे भी  जारी रखेंगे। मुझे यह चर्चा शुरू करने का उद्देश्य कोई शोध ग्रंथ लिखने या किसी कहानीकार या उपन्यासकार की रचनाओं की  आंचलिकता को परिभषित करते हुए उसकी समीक्षा करना नहीं है।

तो आज जो लेखन हो रहा है, उसमें आंचलिकता ढूढ़ने और आंचलिक परिवेश में कशमकश को शब्द देने की कोशिश की जा रही है या नहीं, उसपर विचार करना है। आंचलिकता ग्रामीण परवेश का उन्हीं की भाषा में अभिव्यक्त चित्रण है। इसतरह के लेखन का प्रयास वाल्टर स्कोट से लेकर बंगला, मराठी, उड़िया, तमिल, मलयालम और भारत की अन्य भाषाओं में भी होता रहा है। 


हिंदी भाषा में भी स्वतंत्रता के पूर्व और स्वतंत्रता के बाद के ग्रामीण परिवेश को चित्रित किये जाने का प्रयत्न मूर्धन्य साहित्यकारों द्वारा हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय साहित्य में परिवर्तन की अनेक दिशाएँ दिखाई पड़ती हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति भारतीय जन मानस के लिए मात्र एक घटना नहीं है। 


भारत के विशाल जन- मानस की आशा – आकांक्षा भी उससे जुड़ी हुई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के एकदम बाद की स्थितियां सामान्य नहीं थी। भारत के स्वतंत्र होते ही विभाजन, दंगे, शरणार्थियों के प्रवाह, गाँधी जी हत्या के कारणों, सार्वजनिक क्षेत्र में मूल्य विघटन, प्रजातंत्र का लोकरंजन स्वरूप में प्रकट न होने के लक्षण के बीच उबलते युवा चरित्र के नाजुक क्षण के  रूप में कई विषय मिल गए थे जिसपर साहित्यकारों ने अपनी कलम चलायी।  

   विश्वसाहित्य द्वितीय विश्वयुद्ध की मानवीय त्रासदी से गुजरने के बाद साहित्य में संवेदनाओं के संसार को पुनर्भाषित और पुनर्स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील दिख रहा था। 


इसकी अनुगूंज भी हिंदी साहित्य में दिखाई देती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के आते – आते हिंदी साहित्य में परिवर्तन का एक ठोस धरातल बन गया था। यह वातावरण नई रचनाओं में व्याप्त हो रहा था। अगली चर्चा में हमलोग उस दौर के साहित्यकारों खासकर प्रेमचंद और फणीश्वर नाथ रेणु जी पर आंचलिकता के प्रकाश में विचार करेंगे।

 ब्रजेंद्रनाथ

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