आदित्य शेखर
पितृपक्ष पर कोटि-कोटि नमन
सनातन धर्म में ऐसी मान्यता है कि, हर साल आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष में दिवंगत लोग, जिन्हें पितर कहा जाता है, सूक्ष्म रूप में इस धरती पर पधारते हैं। इस वर्ष अभी पितृपक्ष चल रहा है। लोग अपने पूर्वजों को याद कर रहे हैं, तर्पण श्राद्ध कर रहे हैं। इसी पितृपक्ष में झारखंड की राजधानी रांची के हटिया-धुर्वा क्षेत्र जाना हुआ। रांची के प्रमुख कारोबारी और सामाजिक हस्ती सह हिंदी दैनिक नव प्रदेश के मालिक मधुकर सिंह जी के दफ्तर में। बातचीत के दौरान अचानक दीवार पर टंगी एक तस्वीर पर नजर जा टिकी। सहसा ध्यान में आया कि, यह अयोध्या बाबू यानी अयोध्या सिंह जी की तस्वीर है। तस्वीर पर लगी माला उनके दिवंगत हो जाने की स्थिति बयां कर रही थी। उसी समय से अयोध्या बाबू और उनके विराट व्यक्तित्व से जुड़ीं स्मृतियां दिमाग में उमड़-घुमड़ रही हैं। तभी शेखर का फोन आ गया, सनातन सिंधु डॉट कॉम पर दिवंगत प्रियजनों से जुड़े संस्मरणों को साझा करने का आग्रह था।
हमने सोचा अयोध्या बाबू के सत्कर्मों से समाज को अवगत कराते हुए उन्हें नमन करने और श्रद्धांजलि देने का यह पुनित अवसर है।
अयोध्या बाबू से हमारी मुलाकात करीब दो दशक पहले रांची एचईसी के सेक्टर-3 स्थित एक प्रख्यात चिकित्सक के आवास पर हुई थी। चिकित्सक डॉ वीएन तिवारी और अयोध्या बाबू एचईसी में सहकर्मी थे और दोनों पैतृक रूप से जवारी भी थे। दोनों बिहार के रोहतास जिले के मूल निवासी थे। पहली ही मुलाकात में अयोध्या बाबू के साथ बातचीत में उनकी प्रखरता को नजदीक से देखा। चेहरे का तेज सहज तरीके से आकर्षित कर रहा था। वाणी की गंभीरता से पता चल जा रहा था कि किसी कुलीन परिवार में जन्म हुआ है और माता-पिता ने अच्छे संस्कार दिये हैं।
इसके बाद तो आत्मियता ऐसी बढ़ी कि मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा और हम इतने करीब आ गए, जिसका अनुमान लगाना कठिन है।
काराकाट की माटी में जन्म, संस्कारों संग पले बढ़े
अयोध्या बाबू का जन्म 1932 में बिहार के तत्कालीन शाहाबाद (आरा) जिले के काराकाट क्षेत्र के करमा गांव में एक कुलीन व सभ्रांत क्षत्रिय कृषक परिवार में हुआ था। आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। दादा-दादी और माता-पिता ने कड़े अनुशासन के साये में संस्कारों की सीख दी और अयोध्या बाबू के मानस पटल पर अपनी भारतीय संस्कृति की छाप पड़ती चली गयी।
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद काराकाट (सासाराम) से अयोध्या बाबू उच्च शिक्षा के लिए वाराणसी गए। उस समय वाराणसी ही पूरे देश में शिक्षा का सर्वोत्तम केंद्र हुआ करता था। वहीं के क्षत्रिय कॉलेज से उन्होंने कॉलेज की शिक्षा पूरी की।
फुटबॉल का प्रेम ले आया रांची
कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद करियर तय करने के लिए अयोध्या बाबू के पास कई विकल्प थे। अच्छी नौकरी का ऑफर था, गांव की समृद्ध विरासत को संभालने का मौका भी था। कारोबार के क्षेत्र में भी किस्मत अजमाने का विकल्प था, लेकिन अयोध्या बाबू के व्यक्तित्व में तो आरा जिला वाला राजपूत लहू हिलोरे मार रहा था, जो अपनी जवानी में अपनी मर्जी का करने के लिए विख्यात रहा है। अयोध्या बाबू के साथ भी यही बात लागू हो रही थी/एक तो राजपूत जवान, वो भी आरा का और साथ में प्रतिभाशाली भी। ऐसी स्थिति में उसका करियर भला दूसरा कैसे निर्धारित कर सकता था? अयोध्या बाबू ने तय किया कि फुटबॉल को ही वो अपना करियर बनाएंगे।
एचईसी से बुलावा, रांची बनी कर्मस्थली
उसी दौरान रांची के हटिया स्थित एचईसी में खिलाड़ियों के कोटे से भर्ती निकली। अयोध्या बाबू को जानकारी मिली, तो उन्होंने भी आवेदन कर दिया। इनका बायोडाटा मजबूत था, पहली ही सूची में नाम आ गया। एचईसी में नौकरी ज्वाइन कर ली।
1992 तक अयोध्या बाबू एचईसी से जुड़े रहे फिर वीआरएस ले लिए। नौकरी के दौरान एक सफल फुटबॉलर के रूप में उन्होंने एचईसी को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ट्रॉफी जीतवाई। फुटबॉल के बड़े-बड़े मैचों में एचईसी का डंका बजाया। इससे संस्थान की प्रतिष्ठा बढ़ी और अयोध्या बाबू की पहचान को व्यापक फलक मिला। इस दौरान उन्होंने नई पीढ़ी के फुटबॉलरों को भी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई और इसे संस्थागत रूप प्रदान कराने की व्यवस्था कराई।
शौक से नौकरी, मन से समाजसेवा
अयोध्या बाबू ने शौक से नौकरी की और मन से समाजसेवा के कार्यों को अंजाम दिया। एचईसी से जुड़े कार्यों का निपटारा करने के बाद जो समय बचता था, उसे वो समाज को समर्पित कर देते थे। धार्मिक आयोजनों में वो बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे। सामाजिक कार्यों में भागीदारी निभाने में तनिक भी देर नहीं करते थे। जरूरतमंदों की सेवा करना उनके स्वभाव का हिस्सा था। उस जमाने में बच्चियों की पढ़ाई पर वो खास ध्यान देते थे। संयुक्त परिवार की विरासत में उन्हें अटूट आस्था थी और संयुक्त परिवार की भावना को आजीवन आत्मसात करते हुए उन्होंने समाज के सामने एक नजीर पेश की। बड़े भाई के पांच पुत्रों और चार पुत्रियों को गांव से रांची लाकर पढ़ाया-लिखाया, शादी-विवाह भी कराया व मनोवांछित करियर बनाने में सहयोग किया।
सबके लिए थे अयोध्या बाबू
अयोध्या बाबू ने सिर्फ अपने संयुक्त परिवार के लिए ही तन मन धन से कार्य नहीं किया, बल्कि पूरे समाज के लिए मदद को हमेशा तत्पर रहते थे। गांव जवार से आने वाले दूसरी जातियों या धर्मों के लोगों को भी रांची में रहने, बसने में मुक्तहस्त से सहायता करते थे। यह उनके पुण्यों का प्रतिफल है कि काराकाट क्षेत्र समेत पूरे आरा जिले के सैकड़ों लोग रांची समेत कई शहरों में रोजी-रोजगार पाकर आज अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
शादी-विवाह कराने में रहते थे आगे
अयोध्या बाबू को शादी-विवाह में अगुवा बनने में आतंरिक खुशी होती थी। किसी लड़की की शादी तय या संपन्न कराने में वो किसी भी हद तक जाकर भूमिका निभाते थे। उनका मानना था कि लड़कियों की शादी में सहयोग करने से बड़ा धर्म कुछ भी नहीं होता। आवश्यकता पड़ने पर वो आर्थिक मदद भी करते थे।
पिता के संस्कारों को आगे बढ़ा रहे सुपुत्र
अयोध्या बाबू अपने सिद्धांतों के प्रति बहुत अडिग रहते थे। निजी जीवन में उनकी मान्यता थी कि पुत्र भले एक ही हो, लेकिन आज्ञाकारी हो, संस्कारी हो, विरासत का वाहक हो, कुलीनता का रक्षक हो और माता-पिता के पुण्य कर्मों को आगे बढ़ाने वाला हो। अयोध्या बाबू और उनकी धर्मपत्नी तपेश्वरी देवी आज भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन अपने दिव्य लोक में रहते हुए उनकी दिव्यात्मा को जरूर यह संतुष्टि और संतोष होता होगा कि, उनकी संत्तान परंपरा में एकलौता मधुकर उनके संस्कारों, मूल्यों, सामाजिक और धार्मिक कर्मों को उन्ही की तरह आगे बढ़ाने में बढ़चढ़कर अपने कदम बढ़ा रहे हैं।
शायद अयोध्या बाबू व तपेश्वरी देवी जैसे नेक इंसानों के बारे में ही फिराक गोरखपुरी के ये शब्द हमारे दिमाग को झंकृत कर रहे हैं।
ऐ मौत आके खामोश कर गई तू।
हम सदियों दिलों के अंदर गूंजते रहेंगे।।
दिवंगत अयोध्या बाबू और तपेश्वरी देवी को हमारा कोटि-कोटि प्रणाम और विनम्र श्रद्धांजलि।