चंद्रदेव सिंह राकेश
हिंदू पंचाग के अनुसार पितृ पक्ष का शनिवार 14 अक्तूबर को समापन होना है। मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष में पितर लोग अपने लोक से पृथ्वी वोक पर आते हैं। इस दौरान उनके सम्मान में तर्पण-श्राद्ध किया जाता है।
सनातन सिंधु परिवार पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष के अवसर पर कुछ ऐसी दिव्यात्माओं को आदर के साथ स्मरण कर रहा जिन्होंने अपने जीवन काल में सनातन धर्म व समाज की सेवा में उल्लेखनीय कार्य किये।
ऐसे महापुरूष हमेशा हम सबके के लिए प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे. उनका नश्वर शरीर भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन ये अपने विराट व्यक्तित्त व कृतित्व से हमेशा समाज को आलोकित करते रहेंगे. उन्हें सनातन सिंधु परिवार की ओर से कोटि-कोटि नमन व भावभीनी श्रद्धांजलि।
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के औद्योगिक कस्बे मुसाबनी से संबंध रखने वाले श्री बनारसी दास जी अग्रवाल एक ऐसी विभूति थे जो ताउम्र संस्कृति, संस्कार और सनातन मूल्यों को प्रतिस्थापित करने में पूरे मनोयोग के साथ जुटे रहे।
कारोबार को वे जीवन यापन का एक जरिया भर मानते थे। इसीलिए कमाई में से उतनी ही राशि जीवन-यापन के लिए निकालते थे जितना से काम चल जाता था बाकी पैसे को धर्म-समाजसेवा पर ही न्योछावर कर देते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि ईश्वर की कृपा से वे जो कुछ अर्जित कर रहे हैं वह सबकुछ सिर्फ उनका या उनके परिवार के लिए नहीं है बल्कि परमपिता परमेश्वर ने उनके हाथों लोक कल्याण के भी कुछ कार्य जरूर सौंपे हैं।
बनारसी बाबू का परिवार हरियाणा के खंडाखेड़ी में रहता था। महाराजा अग्रसेन जी के अन्य वंशजों की तरह ये भी कारोबार के लिए स्थान परिवर्तन में विश्वास रखते थे। अपनी इसी भावना के बूते 1946 में गालूडीह आए और बाद में मुसाबनी क्षेत्र में कारोबार को बढ़ाया।
गालूडीह में इन्होंने राशन की दुकान खोली। सामानों की अच्छी गुणवत्ता, मधुर व्यवहार और लोक परोपकारी भावना के चलते बहुत ही कम समय में इलाके में इनका और इनकी दुकान का नाम हो गया। कारोबार तेजी से चल निकला। समय और संभावना के बड़े पारखी थे बनारसी बाबू। शादी के बाद जहां पारिवारिक जिम्मेदारियों का भान हुआ वहीं उन्होंने देखा कि ताम्र उद्योग के चलते मुसाबनी एक संभावना वाला क्षेत्र बन रहा। इसलिए इन्होंने अब मुसाबनी को केंद्र बनाकर कारोबार करने का फैसला किया। शादी के बाद ये मुसाबनी आ गए और यहां भी इनका अच्छा कारोबार रहा। वहां की एचसीएल कंपनी के अलावा दूसरे संस्थानों से भी इनकी फर्म से सामानों की खरीदारी की जाने लगी।
बनारसी बाबू अपने बच्चों को हमेशा यह सीख देते थे कि अपनी कमाई का दसांश धर्म-लोक कल्याण में अवश्य खर्च करना चाहिए। जरूरमंदों की सहायता करने से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए। नेक भाव से किया गया कोई भी कार्य तत्काल परम संतोष की अनुभूति देता है और बाद में कृपा बनकर कर्ता को इससे भी बड़ा दायित्व निर्वहन का संबल-संसाधन उपलब्ध करा देता है। इसीलिए हर इंसान को जितना बन सके समाज की सेवा और धर्म का प्रचार अवश्य करना चाहिए।
बनारसी बाबू ने अपने दोनों पुत्रों दीपचंद्र जी अग्रवाल एवं अशोक जी अग्रवाल के अलावा छह पुत्रियों को भी अपने इन्हीं सोच व संस्कार से संस्कारित किए। ईश्वर की कृपा ऐसी कि ये सभी अपने पिता के बताए और दिखाए रास्ते पर चलकर पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
बनारसी बाबू के छोटे पुत्र अशोक जी अग्रवाल जमशेदपुर के बिष्टुपुर में आभूषणों के बड़े शोरूम श्री ज्वेलर्स का संचालन करते हैं और पिता के पदचिन्हों पर आगे बढ़ते हुए धर्म व समाज की सेवा में भी बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।
यह बनारसी बाबू के पुण्य -प्रताप का ही सुफल है कि परिवार के लोग अलग-अलग शहरों मे कारोबार बढ़ाने की इच्छा रखते हैं और उसके अनुरूप कदम भी आगे बढ़ा रहे हैं।
बनारसी बाबू ने 1964 में नवरात्रि के दौरान चतुर्थी तिथि को घाटशिला में अपने नश्वर शरीर का परित्याग किया था।
पितृ पक्ष के इस पावन अवसर पर सनातन सिंधु डॉट कॉम की ओर से बनारसी बाबू को शत-शत नमन और हृदय से श्रद्धांजलि।