जब राजा के हाथ में चिपक गई थी तलवार, तब झरिया के राजागढ़ में शुरू हुई मां की आराधना

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राजपरिवार राजपरिवार की पुत्रवधू सुजाता सिंह व माधवी सिंह के अलावा जेपी सिंह, संजय कुमार सिंह आदि परिवार के लोग पूजा में शामिल होते हैं। पूर्व में राजा व उनके स्वजन बग्धी से पूजा करने मंदिर आते थे। यहां बांग्ला पंचांग के अनुसार राजा परिवार के कुल पुरोहित षष्ठी से पूजा करते हैं। पहले यहां भैंसे की बलि होती थी। अब मंदिर परिसर में बकरे की बलि दी जाती है।

मध्य प्रदेश के रीवा से 18वीं सदी में चार राजा भाई राज्य विस्तार को लेकर गिरिडीह के पालगंज पहुंचे थे। एक भाई पालगंज के राजा बने। उसके बाद तीन भाई पालगंज से निकले। दूसरे भाई नावागढ़, बाघमारा व तीसरे भाई कतरास के राजा बने। चौथे भाई संग्राम सिंह झरिया के डोम राजा व उनके वंशज को मारकर यहां के राजा बने। कहा जाता है कि चौथाई कुल्ही झरिया में डोम राजा के वंशज को मारने के बाद तलवार संग्राम सिंह के हाथ से चिपक गई। राजा ने मां दुर्गा की आराधना कर बाएं हाथ से ही पुआ बना कर भोग लगाया। परिवार ने आजीवन राजागढ़ में दुर्गा पूजा करने का संकल्प लिया। उसके बाद तलवार उनके हाथ से छूटी। उसी समय से राज परिवार यहां मां की आराधना करता आ रहा है। झरिया राजा परिवार की पुत्रवधू पूर्वजों की 19वीं सदी में राजागढ़ में बनाई गई कोठरी में अब भी सप्तमी से ही पुआ व घटरा पकवान बनाकर परंपरा के अनुसार मां दुर्गा को भोग लगाती हैं। सप्तमी से दशमी तक मंदिर में तीन दिन व रात अखंड दीप जलता है। महाअष्टमी को बलि दी जाती है। मनोकामना पूरी होने पर भक्त दुर्गा मंदिर परिसर में महानवमी के दिन बलि दी जाती है।

दशमी को मां की प्रतिमा को कंधा पर ले जाकर राजा तालाब में विसर्जित किया जाता है। राजागढ़ दुर्गा पूजा समिति के लोग पूजा की व्यवस्था में लगे रहते हैं। मंदिर के पहले पुजारी पुरुलिया के माणिक मुखर्जी थे। बाद में उन्हीं के परिवार के गोपालचंद्र बंधोपाध्याय, सव्यसाची बनर्जी व अमर बंधोपाध्याय ने पुजारी की भूमिका निभाई। वर्तमान में अजय बनर्जी पूजा करते हैं।

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