प्रतिभा प्रसाद कुमकुम
बसंत मालती सम इकतारा , रंग धरा निखराता जाय ।
प्रेम मगन ये पावन अवनी , पवन नेह बिखराता जाय ।।
रंग अंग बासंती लेकर , फूल मालती अती सुहाय ।
बासंती धुन नित ही छेड़े , प्रेम गीत मन रहे समाय ।।
जीत मंत्र है रंग अंग है , धरा और मन है रंगीन ।
प्रेम प्रीत में हुई बावरी , सुमधुर स्वर मत कहो विहीन ।।
व्याकुल पंक्षी बन मन उड़ता , चलो मीत को खोज के लाय ।
कहाँ छिपा है पाखी बन के , आकर शीघ्र अंग लग जाय ।।
मन में होली आज बसी है , धरा रंग सरसाता जाय ।
इकतारा धुन मधुरिम गाता , हृरदय मध्य उतरता हाय ।।
दिल झूम झूम उठता है क्यूँ , उन्मत बसंत मालती प्रीत ।
प्रेम गान गुंजित करने को , हो स्नेहिल सुरभित संगीत ।।
नित्य सृष्टि नवरंग घोलती , बासंती पुरवाई चाल ।
बसंत मालती फूल रही है , वन- उपवन मंजरित रसाल ।।
मधुर मिलन की रैन न भूलें , कर लें अंतर वार्तालाप ।
वाणी बीणा की सरगम पर , लेतीं सुललित स्वर आलाप ।।