सत्तर के दशक की एक कहानी : कथानक व रोचकता से परिपूर्ण उपन्यास, हर किसी के पढ़ने लायक

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पुस्तक समीक्षा : दिव्येन्दु त्रिपाठी

डिवाइडर पर कालेज जंक्शनब्रजेन्द्रनाथ मिश्र द्वारा लिखित एक मनोहर उपन्यास है जो अपने कथानक तथा उसकी प्रस्तुति की रोचकता से परिपूर्ण है। इस उपन्यास का कथानक युवा मन ,युवा तन और युवा वातावरण के केन्द्रीय भाव से युक्त है।

पूरी कथा बिहार के जैन कालेज, आरा की पृष्ठभूमि में चलती है तथा 70 के दशक के वातावरण को समेटती है। जो भी पाठक उस कालखंड में वहाँ छात्र रहा होगा अथवा उस परिवेश को देखा और महसूस किया होगा वह सहज रूप से इसके यथार्थस्पर्शी पक्षों को पहचान लेगा। इसे पढकर बहुत कुछ चित्रपट-छवि सी महसूस होती है।उपन्यास कुल चार खडों तथा चौबीस अंशों में विभक्त है।

         युवावस्था में पनपनेवाले प्रणय और चरित्रगत चुनौतियों का सामना हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में करता है। यह उपन्यास इस समस्या को भी रेखांकित करता है। 

यथार्थ के समीप चलने की लेखकीय प्रतिबद्धता पूरी रचना में दृष्टिगोचर होती है और यही कारण है कि लेखक कहीं भीआकाशीय आदर्शों का सहारा नहीं लेता तथा यथार्थ की मांसलता और विद्रूपता को चित्रित करने का साहसिक कदम उठाता है।

बेनी नामक पात्र की चारित्रिक समस्या और पुष्पेश-्अंशिका का विकसित होता प्रणय (इन्फेचुएशन से शायद कुछ आगे) पूरी कथा को गुलाबी रोचकता देता हैं। लगता है मानो यह कोई प्रेमपरक रचना हो लेकिन कदम- दर -कदम कुछ और ही समस्या प्रतिध्वनित होती है।
उपन्यास के आरंभ में महाविद्यालय के अनेक अध्यापकों का रोचक परिचय दिया गया है जो कि यथार्थ के करीब लगता है तथा पाठक को उसके विद्यार्थी जीवन का वातावरण स्मरण करवा सकता है।

अध्यापकों की बहुरंगी छवि शुरू से ही कथानक को रोचक बनाती है। उनकी योग्यता, विद्वता ,ललित छवि, स्वभावगत विषमता, अहं आदि का लेखक ने सूक्ष्मता से चित्रण किया है। यथावसर हास्य का पुट जैसे कि अध्यापकों द्वारा धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए बीच में भोजपुरी बोलना -बुझाइल नू, ठीक बा नू। शीर्षक के अनुसार ही उपन्यास का चरम कालेज की छात्र- राजनीति और षड्यंत्र पर पर्यवसान पाता है।

महाविद्यालय के वातावरण में नगर के दबंग राजनेताओं की विषाक्त विचारधारा प्रवेश कर जाती है ओर सबकुछ दूषित और आग्नेय हो जाता है। अंत में काफी कुछ बदलता नजर आता है।आरंभ में जिन अध्यापकों का परिचय दिया गया है, अंत में सभी अपनी यथायोग्य भूमिका में आते हैं।

अंत काफी कुछ ड्रामेटिक है। चारित्रिक चुनौती से जूझता बेनी क्षणनायक बनकर उभरता है।सच है परिस्थितियाँ व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। कभी वे दस्यु बनाती हैं तो कभी संत। यह नाटकीयता काफी कुछ जायज लगती है तथा पात्र के साथ न्याय भी करती है।

इस उपन्यास को पढकर फणिश्वरनाथ रेणु का उपन्यास कितने चौराहे का सहज स्मरण हो आया। वहां भी मनमोहन नामक छात्र परिस्थितियों से जूझता है लेकिन आजादी की लड़ाई के दौर का वह कथानक उसे अधिक जुझारू तथा आदर्शजीवी बनाता है और उसका चरित्र मजबूत रखता है। सत्तर का दशक काफी बदल चुका था। राजनीति, समाज और परिवार की कसौटियाँ बदल रही थीं जिसकी झलक डिवाइडर पर कालेज जंक्शन में सहज ही ‘दिखती है। अब आदर्शों का दौर धीमा पडऩे लगा था।


इस उपन्यास में पुष्पेश और अंशिका की आशिकी और विकसित होती तो अच्छा होता लेकिन लेखक ने जिस दशक को चित्रित किया है उस दशक के तहत पुष्पेश- अंशिका की कहानी काफी बोल्ड मानी जाएगी।

उस दौर में कथाक्रम को छोटे शहरों के परिप्रक्ष्य में विकसित करना काफी अयथार्थ ही लगेगा। जब नब्बे के दौर तक काफी बदलाव आ चुका था लेकिन तब भी पत्राचार होना ही बहुत बड़ी प्रणयगत सफलता थी। फिर सत्तर तो सत्तर ही था। लेखक ने अंत में कालेज की राजनैतिक -वैचारिक-नैतिक समस्या को महत्व देकर उपन्यास के शीर्षक को सार्थक बना दिया है।
उपन्यास अपने शिल्प में भी सबल है। कथोपकथन तथा वर्णन दोनों में बेहतर सामंजस्य है। स्थान-स्थान पर भाषा की देशजता इसे जीवंत बनाती है।

उपन्यासकार काफी साहसी हैं और विद्यार्थियों में प्रचलित सहज अपशब्दात्मक संबोधनों (गाली-गलौंज) को भी निडरता से स्थान देता हैं। अंतरंगता का चित्रण काफी रोचक है ओर विशेषकर युवापाठक को अपनी ओर खींच पाने में सक्षम है।लेखक कवि भी हैं और उन्होने उपन्यास के आरंभ तथा अंत दोनों को ही पद्यात्मकता प्रदान की है। कहीं-कहीं शिष्टाचारगत चित्रण लंबे खिंच गए हैं।

डिवाइडर पर कालेज जंक्शन
ब्रजेन्द्रनाथ मिश्र
हिंदयुग्म प्रकाशन
मूल्य-115/

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